اي ز راي تو ملک و دين معمور
شاعر : انوري
شب اين روز و ماتم آن سور | | اي ز راي تو ملک و دين معمور | صادر و وارد صبا و دبور | | حامل حرز نامهي امرت | رايت تو چو نام تو منصور | | دولت تو چو ذکر تو باقي | دست تو گنج رزق را گنجور | | کلک تو شرع ملک را مفتي | نور راي ترا تجلي طور | | سد حزم ترا متانت قاف | ساکن و ساير وحوش و طيور | | شاکر حفظ سايهي عدلت | که مفري بود ز سايه و نور | | حرم حرمت تو شايد بود | در جهان رسم رزق را مقدور | | کرم از فيض دستت آورده | زور بازوي آسمان شده زور | | هرکجا صولتت فشرده قدم | کرده در دامن فنا مستور | | فتنه را از کلاه گوشهي جاه | روز و شب را جهان ماتم و سور | | دادي از روزگار دشمن و دوست | با وقوف تو راز نامستور | | با رواي تو روز نامعروف | همه آيات شان تو مشهور | | بوده آنجا که ذکر حامل ذکر | هيچ خصم تو نيست جز مقهور | | آسماني که در عناد وغلو | هيچ سعي تو نيست مشکور | | آفتابي که در نظام جهان | منشي راي تو دهد منشور | | نه قضايي که در مصالح کل | که نباشد درو مجال فتور | | عزم تو توامان تقديرست | مهدي عدل تو قرار امور | | گر دهد در ديار آب و هوا | کمر حمله بگسلد زنبور | | جوشن کينه برکشد ماهي | کلکت آن عالمي بدو معمور | | هرچه در سلک حل و عقد کشد | يا بود سر سينهي دستور | | يا بود کنه فکرت خسرو | در او در صرير نايب صور | | موقف حشر چيست بارگهت | متسلسل همي کند محشور | | کز عدم کشتگان حادثه را | ننشيند برو غبار غرور | | دامنت گر سپهر بوسه دهد | قلزم همت تو موج سرور | | به خداي ار به ملک کون زند | باد و ديوند مسرع و مزدور | | گرچه اندر سباي حضرت تو | به چنان بار نامها مغرور | | نشود هوش تو سليمانوار | که تغير پذيرد از باحور | | نشو طوبي نه آن هوا دارد | به تعدي بگردد از انگور | | طبع غوره است آنکه رنگ رخش | کز تف کبريا شود محرور | | نفس تو معتدل مزاجي نيست | مادر دهر در سرور و شرور | | رو که کاملتر از تو مرد نزاد | نام زنگي بسي بود کافور | | لاف مردي زند حسود وليک | به بقا اعتدال شد مذکور | | معتدل جاه بادي از پي آنک | وي عطاي ترا لزوم وفور | | اي بقاي ترا خواص دوام | مدتي دير از اين سعادت دور | | وانکه من بنده بودهام نه به کام | بر فراق توام چو سنگ صبور | | وين که در کنج کلبهاي امروز | خود مخير کجا بود مجبور | | تا بداني که اختياري نيست | رنج رنجور وشادي مسرور | | به خدايي که از مشيت اوست | وان ز حرمان خدمتت رنجور | | که مرا در همه جهان جانيست | تا چرا داردم هميشه نفور | | از چنين مجلس اي نفير از بخت | عيب قلت نداردي و قصور | | اي دريغا اگر بضاعت من | خط قربت بيابمي موفور | | تا از اين سان که فرط اخلاصيست | کنمي بر ثناي تو مقصور | | تا ز عمر آن قدر که مايه دهند | نيستم نزد خويشتن معذور | | گرچه زانجا که صدق بندگيست | اي بساط تو برده آب صدور | | چه کنم در صدور اهل زمان | غيبتم خوشگوارتر ز حضور | | سخنم دلپذيرتر ز لقاست | حلا آن يخفروش نيشابور | | حال من بنده در ممالک هست | کاننشد چون حساب ضرب کسور | | از چه برداشتم حساب مراد | با کلامي چو لل منثور | | چون صدف تا که يک نفس نزنم | شايد ار نيستم چو سگ ساجور | | هر دري نيستنم چو گربهي رس | استخوان ريزه بر قفا ساطور | | سگ قصاب حرص را ارزد | نکند درد منتم مخمور | | جرعهي جام جود اگر بخورم | خاک خور اي طبيعت آزور | | مرد باش اي حميت قانع | شو بپرس از قصايد دستور | | پادشاهم به نطق دور مشو | از جوال شره برون طنبور | | آمدم با سخن که نتوان کرد | همه باشکل و باشمايل حور | | دخترانند خاطرم را بکر | در ملاقات و انبساط حذور | | در شبستان روزگار عزب | همه بر نقش و سايهي تو غيور | | همهرا عز و نسبت تو جهاز | مکن از التفاتشان مهجور | | درنگر گر کراي خطبه کند | شد بر اوراق آسمان مسطور | | اي بجايي که هرچه تو گويي | تا بدان تربيت شور منظور | | نظري کن به من چنانکه کنند | به ذراع سنين و شبر شهور | | تا فلک طول دهر پيمايد | طول ايام و امتداد دهور | | از سنين و شهور دور تو باد | جاودان فارغ از حجاب ظهور | | روز اقبال تو چو دور سپهر | چون شب نيمکشتگان ديجور | | شب خصم تو تا به صبح آبد | قلمت آمر و جهان مامور | | سخنت حجت و قضا ملزم | |
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